नाटक-एकाँकी >> इदं न मम इदं न ममशुभांगी भडभडे
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राष्ट्रपुरुष श्रीगुरुजी के प्रेरणादायी जीवन की मोहक नाट्य प्रस्तुति, इदं न मम...
विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ के द्वितीय सरसंचालक श्रीगुरुजी अलौकिक व्यक्तित्व के धनी थे। उनका
अमोघ वक्तृत्व, अपार-समर्पित राष्ट्रनिष्ठा, कुशल संघटन, विलक्षण
स्मरणशक्ति आदि गुण उन्हें एक युगद्रष्टा बनाते हैं। उनका कहा हुआ आज भी
प्रासंगिक हैं। अनुभूति से, साधना से, आत्मीय भावना से उन्हें कालातीत
विचार करने की शक्ति प्राप्त हुई थी।
उनकी हिंदुत्व की परिभाषा सर्व-समावेशक की थी। हिंदुस्थान की भूमि पर रहनेवाला–किसी भी जाति का, धर्म का, पक्ष का हो – प्रथमतः हिंदू है : यह विचार उन्होंने दिया। इसके अंतर्गत राष्ट्रविकास, राष्ट्र-सुरक्षा और सीमा-सुरक्षा उन्हें सर्वाधिक प्रिय थी।
संस्कृति के प्रति उनकी अपार निष्ठा थी। विश्व में सबसे प्राचीन भारतीय संस्कृति के शाश्वत जीवन-मूल्य ऋषि-मुनियों के अनुभूत तथा साधना से संपन्न मानवीय विचारों पर आधारित हैं, यह संस्कृति-संवर्धन उन्हें महत्त्वपूर्ण लगता था। उनका सबकुछ राष्ट्र को समर्पित था। वे राष्ट्र को सर्वोपरि मानते थे।
ऐसे राष्ट्रपुरुष श्रीगुरुजी के प्रेरणादायी जीवन की मोहक नाट्य प्रस्तुति है इदं न मम।
उनकी हिंदुत्व की परिभाषा सर्व-समावेशक की थी। हिंदुस्थान की भूमि पर रहनेवाला–किसी भी जाति का, धर्म का, पक्ष का हो – प्रथमतः हिंदू है : यह विचार उन्होंने दिया। इसके अंतर्गत राष्ट्रविकास, राष्ट्र-सुरक्षा और सीमा-सुरक्षा उन्हें सर्वाधिक प्रिय थी।
संस्कृति के प्रति उनकी अपार निष्ठा थी। विश्व में सबसे प्राचीन भारतीय संस्कृति के शाश्वत जीवन-मूल्य ऋषि-मुनियों के अनुभूत तथा साधना से संपन्न मानवीय विचारों पर आधारित हैं, यह संस्कृति-संवर्धन उन्हें महत्त्वपूर्ण लगता था। उनका सबकुछ राष्ट्र को समर्पित था। वे राष्ट्र को सर्वोपरि मानते थे।
ऐसे राष्ट्रपुरुष श्रीगुरुजी के प्रेरणादायी जीवन की मोहक नाट्य प्रस्तुति है इदं न मम।
इदं न मम
(कक्षा में सात-आठ विद्यार्थी)
गुरुजी : अरे, आप सब किसलिए आए हो?
एक : सर, आप बैठे हैं, इसलिए हम आए हैं।
गुरुजी : मैं यहाँ अपने नागपुरवाले मित्र की प्रतीक्षा में बैठा हूँ। भैया दाणी नाम है उसका और आज वह मुझे यहाँ की संघ शाखा में ले जाने वाला है। आज क्लास नहीं होगी। आप जा सकते हो।
दूसरा : सर, आज हम आपसे कुछ सवाल पूछना चाहते हैं, जो कब से हमारे मन में हैं।
तीसरा : हाँ सर, आप सभी सर लोगों से अलग हैं। आप हमसे इतने प्यार से बातें करते हो कि लगता है, आप हमारे…
गुरुजी : (खिलखिलाकर हँसते हैं) मैं आपका बड़ा भाई लगता हूँ, यही न?
सर्व : जी सर! अरे, यह तो आपकी स्नेह भरी दृष्टि का चमत्कार है।
गुरुजी : पूछो, क्या पूछना चाहते हो?
चौथा : हमारी दृष्टि यदि स्नेह भरी होती तो, लेकिन ऐसा नहीं है। आप हमारे मन के गागर में सागर भर देना चाहते हैं। किताबों में जो लिखा है, वह तो आप पढ़ाते ही हैं, लेकिन आपकी सारी बातें हमें बहुत अच्छी लगती हैं।
गुरुजी : अरे वाह, मैं सागर का नमकीन पानी आपके मन के गागर में भरता हूँ, फिर भी मैं आपको अच्छा लगता हूँ!
पाँचवाँ : सर, आप तो हमारे शब्द बड़े चतुराई से पकड़ लेते हैं। मेरा कहने का उद्देश्य था, आप इतना कब पढ़ते हैं?
गुरुजी : किसने बताया कि मैं खूब पढ़ता हूँ?
छठा : उस दिन, जब मैं आपके घर आया था, आपका कमरा किताबों से भरा हुआ था। आप पढ़ रहे थे और आपको तेज बुखार था।
गुरुजी : किसने कहा–मुझे तेज बुखार था?
छठा : सर, आपने मेरा हाथ पकड़कर मुझे बैठने को कहा था, मैंने कहा भी सर, आपको तेज बुखार है, आप आराम कीजिए और बाद में पढ़िए। तब आपने कहा था, अरे भई, मेरा बुखार अपना काम कर रहा है, मैं पढ़ने का काम कर रहा हूँ। न तो बुखार ने मुझसे आते समय अनुमति माँगी, और अब तो वह मेरे शरीर में आया ही है तो उसे मना भी कैसे करूँ? वह मेरा अतिथि जो है।
एक : सर, आप ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं?
गुरुजी : (हँसकर) जो प्यार से आकर बैठे तो उसे जाने के लिए थोड़े ही कहते हैं। और उसने भी तो मुझे पढ़ने से नहीं रोका।
दूसरा : सर, आप दिन-रात पढ़ते हैं क्या?
गुरुजी : (हँसते हैं)
छठा : मैं अपने कुछ सवाल लेकर उनके कमरे में गया था, तब देखा, पूरा कमरा किताबों से भरा पड़ा था। उसमें महाभारत, रामायण, वेद, उपनिषद्, स्वामी विवेकानंद, बाइबल, अंग्रेजी दार्शनिकों की कितनी ही किताबें थीं। ऐसा लगा कि मैं किताबों की दुकान में आया हूँ।
सातवाँ : मैंने तो सर को गंगाजी के किनारे चिंतन करते हुए देखा है। देर तक मैं उनकी आँखें खुलने की प्रतीक्षा करता रहा। अंत में वहाँ से निकल पड़ा। दूसरे दिन मैं गया तो शाम ढल चुकी थी और सर को मैंने बाँसुरी बजाते देखा। मैं देखता रह गया और सुनता रहा।
गुरुजी : (हँसते हैं)
तीसरा : अरे भाई, यहाँ कॉलेज में वे टेनिस भी खेलते हैं! सर, आप इतना सारा काम कैसे कर लेते हैं! हमने ऐसा प्राध्यापक देखा ही नहीं।
एक : सर, आप कुछ कहिए न!
दूसरा : सर, आपके बारे में हम लोग छोटी-छोटी जानकारी रखते हैं।
गुरुजी : क्यों भई, क्या मैं चोर-उचक्का लगता हूँ? मैं प्राणिशास्त्र का सीधा-सादा प्राध्यापक हूँ। पढ़ाता हूँ, घर जाता हूँ।
चौथा : नहीं, ऐसा नहीं है। आप कभी श्रीरामकृष्णजी के आश्रम में भी जाते हैं, हमने आपको संघ शाखा में भी जाते हुए देखा है। सर, आपको इतना समय कैसे मिलता है?
पाँचवाँ : अरे, एक बड़ी बात तो हम कहना भूल ही गए। सर, आज जिनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, वे भैया दाणी, जो इनके गाँव के, नागपुर के हैं, वे बी. ए. पास हैं। वे मेरे भाई के मित्र हैं। वह पढ़ाई न होने की वजह से परीक्षा देना नहीं चाहते थे तो अपने सर ने उनके सभी विषयों का अध्ययन कर उन्हें पढ़ाया और वे उत्तीर्ण हो गए।
गुरुजी : अरे, पुलिस भी नहीं रखती होगी उतनी जानकारी जितनी आप लोग मेरी रखते हो!
तीसरा : आप हमारे गुरु हैं, आदर्श हैं, आज से हम आपको गुरुजी कहेंगे; लेकिन बताइए न, इतना सारा काम आप कैसे करते हैं, गुरुदेव?
गुरुजी : मन में इच्छा हो, अपने कार्य के प्रति श्रद्धा हो और परस्पर स्नेहभाव हो तथा आप जैसे विद्यार्थियों के प्रति विश्वास हो तो सबकुछ अपने आप होता जाता है। मन की एकाग्रता, मन की प्रसन्नता और मन का चिंतन हमें बहुत कुछ सिखा देता है।
चौथा : यह मन कहाँ होता है, गुरुजी? मन नाम की कोई चीज शरीर-शास्त्र में भी नहीं है।
गुरुजी : सच है, भावना, संवेदना, इच्छा, आकांक्षा–यह सबकुछ जिसमें समाया होता है, वह मन, आत्मा और परमात्मा की बीच की कड़ी होती है। आपने कभी हवा का झोंका देखा है? आपने कभी फूलों की महक देखी है? उसे महसूस किया जाता है। मन भी आत्मा की तरह निराकार महसूस की जानेवाली बात है।
गुरुजी : अरे, आप सब किसलिए आए हो?
एक : सर, आप बैठे हैं, इसलिए हम आए हैं।
गुरुजी : मैं यहाँ अपने नागपुरवाले मित्र की प्रतीक्षा में बैठा हूँ। भैया दाणी नाम है उसका और आज वह मुझे यहाँ की संघ शाखा में ले जाने वाला है। आज क्लास नहीं होगी। आप जा सकते हो।
दूसरा : सर, आज हम आपसे कुछ सवाल पूछना चाहते हैं, जो कब से हमारे मन में हैं।
तीसरा : हाँ सर, आप सभी सर लोगों से अलग हैं। आप हमसे इतने प्यार से बातें करते हो कि लगता है, आप हमारे…
गुरुजी : (खिलखिलाकर हँसते हैं) मैं आपका बड़ा भाई लगता हूँ, यही न?
सर्व : जी सर! अरे, यह तो आपकी स्नेह भरी दृष्टि का चमत्कार है।
गुरुजी : पूछो, क्या पूछना चाहते हो?
चौथा : हमारी दृष्टि यदि स्नेह भरी होती तो, लेकिन ऐसा नहीं है। आप हमारे मन के गागर में सागर भर देना चाहते हैं। किताबों में जो लिखा है, वह तो आप पढ़ाते ही हैं, लेकिन आपकी सारी बातें हमें बहुत अच्छी लगती हैं।
गुरुजी : अरे वाह, मैं सागर का नमकीन पानी आपके मन के गागर में भरता हूँ, फिर भी मैं आपको अच्छा लगता हूँ!
पाँचवाँ : सर, आप तो हमारे शब्द बड़े चतुराई से पकड़ लेते हैं। मेरा कहने का उद्देश्य था, आप इतना कब पढ़ते हैं?
गुरुजी : किसने बताया कि मैं खूब पढ़ता हूँ?
छठा : उस दिन, जब मैं आपके घर आया था, आपका कमरा किताबों से भरा हुआ था। आप पढ़ रहे थे और आपको तेज बुखार था।
गुरुजी : किसने कहा–मुझे तेज बुखार था?
छठा : सर, आपने मेरा हाथ पकड़कर मुझे बैठने को कहा था, मैंने कहा भी सर, आपको तेज बुखार है, आप आराम कीजिए और बाद में पढ़िए। तब आपने कहा था, अरे भई, मेरा बुखार अपना काम कर रहा है, मैं पढ़ने का काम कर रहा हूँ। न तो बुखार ने मुझसे आते समय अनुमति माँगी, और अब तो वह मेरे शरीर में आया ही है तो उसे मना भी कैसे करूँ? वह मेरा अतिथि जो है।
एक : सर, आप ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं?
गुरुजी : (हँसकर) जो प्यार से आकर बैठे तो उसे जाने के लिए थोड़े ही कहते हैं। और उसने भी तो मुझे पढ़ने से नहीं रोका।
दूसरा : सर, आप दिन-रात पढ़ते हैं क्या?
गुरुजी : (हँसते हैं)
छठा : मैं अपने कुछ सवाल लेकर उनके कमरे में गया था, तब देखा, पूरा कमरा किताबों से भरा पड़ा था। उसमें महाभारत, रामायण, वेद, उपनिषद्, स्वामी विवेकानंद, बाइबल, अंग्रेजी दार्शनिकों की कितनी ही किताबें थीं। ऐसा लगा कि मैं किताबों की दुकान में आया हूँ।
सातवाँ : मैंने तो सर को गंगाजी के किनारे चिंतन करते हुए देखा है। देर तक मैं उनकी आँखें खुलने की प्रतीक्षा करता रहा। अंत में वहाँ से निकल पड़ा। दूसरे दिन मैं गया तो शाम ढल चुकी थी और सर को मैंने बाँसुरी बजाते देखा। मैं देखता रह गया और सुनता रहा।
गुरुजी : (हँसते हैं)
तीसरा : अरे भाई, यहाँ कॉलेज में वे टेनिस भी खेलते हैं! सर, आप इतना सारा काम कैसे कर लेते हैं! हमने ऐसा प्राध्यापक देखा ही नहीं।
एक : सर, आप कुछ कहिए न!
दूसरा : सर, आपके बारे में हम लोग छोटी-छोटी जानकारी रखते हैं।
गुरुजी : क्यों भई, क्या मैं चोर-उचक्का लगता हूँ? मैं प्राणिशास्त्र का सीधा-सादा प्राध्यापक हूँ। पढ़ाता हूँ, घर जाता हूँ।
चौथा : नहीं, ऐसा नहीं है। आप कभी श्रीरामकृष्णजी के आश्रम में भी जाते हैं, हमने आपको संघ शाखा में भी जाते हुए देखा है। सर, आपको इतना समय कैसे मिलता है?
पाँचवाँ : अरे, एक बड़ी बात तो हम कहना भूल ही गए। सर, आज जिनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, वे भैया दाणी, जो इनके गाँव के, नागपुर के हैं, वे बी. ए. पास हैं। वे मेरे भाई के मित्र हैं। वह पढ़ाई न होने की वजह से परीक्षा देना नहीं चाहते थे तो अपने सर ने उनके सभी विषयों का अध्ययन कर उन्हें पढ़ाया और वे उत्तीर्ण हो गए।
गुरुजी : अरे, पुलिस भी नहीं रखती होगी उतनी जानकारी जितनी आप लोग मेरी रखते हो!
तीसरा : आप हमारे गुरु हैं, आदर्श हैं, आज से हम आपको गुरुजी कहेंगे; लेकिन बताइए न, इतना सारा काम आप कैसे करते हैं, गुरुदेव?
गुरुजी : मन में इच्छा हो, अपने कार्य के प्रति श्रद्धा हो और परस्पर स्नेहभाव हो तथा आप जैसे विद्यार्थियों के प्रति विश्वास हो तो सबकुछ अपने आप होता जाता है। मन की एकाग्रता, मन की प्रसन्नता और मन का चिंतन हमें बहुत कुछ सिखा देता है।
चौथा : यह मन कहाँ होता है, गुरुजी? मन नाम की कोई चीज शरीर-शास्त्र में भी नहीं है।
गुरुजी : सच है, भावना, संवेदना, इच्छा, आकांक्षा–यह सबकुछ जिसमें समाया होता है, वह मन, आत्मा और परमात्मा की बीच की कड़ी होती है। आपने कभी हवा का झोंका देखा है? आपने कभी फूलों की महक देखी है? उसे महसूस किया जाता है। मन भी आत्मा की तरह निराकार महसूस की जानेवाली बात है।
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